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Showing posts from November, 2009

उडान

बन्द होती सांसे यूं जीना भी कोई जीना है फडफडाते है पंख छूने को आकाश नये कुतरे पंख कैसे काई उडान भरे........ ! नन्ही चीडियां रश्क तूझसे  मिला खुला आकाश तूझे हवा भी कुछ कहती हौले-हौले......  ! टूटते बांध आशाओं के बन्द हो जाते  दरवाजे खुलने वाले एक मंजिल पा कर मंजिलों से दूरी है...... ! उम्मीद कहती हौले से कानों में तू क्योकर उदास है कोई सवेरा कोई सहर दाखिल होती ही है सफर बोझिल जरूर पर कट तो रहा है....... ! कतरे पंख ही सही उडान तो भर  आस मां देखता है राह तेरी बंधी मुठ्रठी खोल तो जरा फिर न कहना कही रोशनी नही...... ! एक दीप जला तो जरा पग पग धर, धरा नप जाये हौसला कर कदम तो बढा. ...................!        _______

आखिर कब तक सहूंगी.....(.अन्तिम भाग) जागरूकता व बचाव

जब घर में ही हिंसा की शिकार महिलाओं से मैने उनके विचार जानने चाहे किसी भी आम हिन्दुस्तानी औरतों की भांति ही उनके विचार थे यह कहना है आखिर हम आवाज उठाये तो किसके खिलाफ जा उनका पति या परिवार है चाहे वो भाई  हो या अन्य काई पति से जन्मजन्मातंर का रिश्ता होता है  वह उनके खिलाफ कैसे जा सकती है मेरी एक परिचिता जो पेशे से डा0 है खुद कहती है कि कुछ रिश्ते ऎसे होते है जेसे पति ,भाई कोई महिला इनसे लड नही सकती इनकी बातो को सहने के अलावा उनके पास अन्य कोइ रास्ता नही होता।इसलिए विरोध करने से अच्छा या तो अनुसरण करो या फिर सहते रहो। यह तो बात रही सहन करने की,लोगो का भी यह मानना है जो सहते है घर भी उन्ही के बचे रहते है जो नही सह पाते उनके घर बिखर जाते है क्योकि यदि घरेलू हिंसा को रोकने में जब कानून का सहारा लिया जाता है तब दौर शुरू होता है टूटने व बिखरने का काई भी व्यक्ति यह विश्वास नही कर पाता कि पीडित या पीडिता यदि कानून की शरण मे गयी है तो फिर रिश्ते समाप्ति के कगार पर आ पहुँचते है यदि कानून द्वारा रिश्तों  का बरकरार भी रखा गया तो वह आपसी प्रेम का नही दबाव का नतीजा होता है कि रिशता बना है दिल मे प

आखिर कब तक सहूंगी......भाग दो

घरेलू हिंसा जो मुद्दा मैने उल्टा तीर पर उठाया किन्ही अपरिहार्य कारणो की वजह से उस ब्लाग पर नही पोस्ट कर रही हूं मैने आखिर कब तक संहूगी    शीर्षक से लिखी पोस्ट में मैने घरेलू हिसां के कारणो व प्रवृत्तियों पर लिखा जिसमें यह लिखा कि किस तरह घरेलू हिंसा का शिकार व्यक्ति अपने काम पर भी ध्यान नही दे पाता किस तरह घरों में रिश्तों के दौरान हिंसा पनपती है। जहां तक मै समझती हूं कोई रिश्तों तब हिंसक हो उठता है जब उसे यह लगता है दूसरे को उसकी कोई परवाह नही जब पत्नियां पति पर हावी होने की कोशिश करे उसके परिवार की इज्जत न करे व उसे पलट कर जवाब दे पति की अनदेखी आथिर्क तंगी पति या पत्नी का अन्यत्र रूचि लेना। इसी तरह  काई महिला भी परिवार भी तभी हिसंक होती है जब उसकी उपेक्षा हो या उसका व्यवहार ही इस तरह का हो, दंबग होना अपना रोब व परिवार में अपनी तानाशाही चलाना ,किसी भी व्यक्ति के हिंसक होने के पीछे वो मनोवेग भी कारण होते है जिन से वह आये दिन गुजरता है ,सबसे अहम रोल होता है माहौल का जिससे बच्चे ,बूढे ,रूत्री पुरूष सभी प्रभावित होते है। परिवार में यदि काई  कानून का सहारा भी लेता है इसमें भी परिवारों
कुछ भी न कह कर बहुत कुछ कह जाते है सबने सताया जी भर कर, अब तो गमों  को भी शर्म आती है हम पर! आदत जो होती है उसे मिटा ना कैसे कत्ल होता है अरमानों का देखो फितरत दूनिया कितनी मासूम है ! बांध  कर हाथों को क्या तलाश है वो मुकाम कहा रास्ता कहां कुछ भी न कर कह कर बहुत कुछ कह जाते है। हमने बना दिया मूरत को भी इन्सा  है काफी दम खम हममें वो छीन लेता है हर खुशी मुझसे  कैसा  हमसफर है मेरा मार डालता है कहकर, जिन्दगी  दे रहा हूं तूझे !
मासूम चेहरो से, डर लगता है इनकी तल्खी, शोखिया, अदाये होती है कातिलाना चेहर, जो चलाते है नश्तर कैसे कहूं इन नश्तरों से डर लगता है मासुम आंखे दिलों में चलाकिया चलाकियों से, डर लगता है! कत्ल कर जाते है खामोशी से उफ! भी नही जरा, मासूम चेहरो से दूर रहना है इनकी जिदे ,इनकी दीवानगी रो कर हर बात मनवा लेना चेहरों ने गुनाह करवाये है ! आइना दिखा देता है फितरत एक दिन सौ बार जो मुंह छिपाये है ! मासूम चेहरों से डर लगता है ! होती है इनकी बाते निराली हर शह को दूर कर दो चेहरों पर लगे है चेहरे , बन्द कर लिया है आंखो को हां ! मासूम   चेहरों से डर लगता है..... .।