
तपती धुप झुलसते मन
खोजे कही अपनापन
नही कुछ पास बस वीरानियां
क्यों होता इस तरह
क्या प्रेम का यह एक दौर है...........
क्या हासिल दूनिया से लडकर
खालीपन........ हां बस तन्हाई
प्यार है तो बंधन क्यों
बंधनो में घुट जायेगे...
क्यों मांगते उम्मीदों की भीख
हाथ नही भरे तुम्हारे...
किससे प्यार चाहतें हो
पत्थर कहती दूनियां जिसकों
सिर उसपर झुकाते क्यों है
लोग रूसवा करते मोहब्बतों को
जान कर भी प्यार दिखाते क्यों हो
छीन लेते खुशियों को दोस्तों
अपनी खुशी को सबसे बचा कर रखना..................।
क्यों होता इस तरह
ReplyDeleteक्या प्रेम का यह एक दौर है...........
शायद।
प्रेम के भी अनेक रूप होते हैं।
तपती धुप झुलसते मन
ReplyDeleteखोजे कही अपनापन
नही कुछ पास बस वीरानियां
क्यों होता इस तरह
क्या प्रेम का यह एक दौर है.......
बिल्कुल .. धूप छाँव तो जीवन का खेल है ...
अच्छा लिखा है
वाह क्या बात है बेहद सुन्दर............
ReplyDeleteअच्छी कविता है लेकिन पंक्तियों की तरतीब कुछ बदलना होगा ।
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